महिलाओ के प्रति बढ़ते अपराध कैसे रुके

  महिलाओ  के  प्रति  बढ़ते   अपराध  कैसे रुके




हैरानी इस बात की है कि  दिल्ली  गैंग  रैप घटना ने सभ्य  समाज के लोगो को झकझोर दिया  उसके बाद भी ऐसे  अपराधो में  कोई कमी नहीं आई  ! सरकार के साथ  समाज को भी सोचना होगा !हम उस द्रष्टि को नहीं बदल पा रहे है जो स्त्री को सम्मान की निगाह से नहीं देखती है
हर इन्सान, हर परिवार और पूरे समाज को यह जवाब देना है कि ऐसे पुरूषों की ऐसी मानसिकता बनी क्यों है? वे अपने पूरे होशो हवास में जानबूझकर वहशी व्यवहार करते हैं, उनके लिए तो जो कुछ बोला जाए वह कम है। लेकिन हम यह भी पाते हैं कि अपराधी सिर्फ वही नहीं है जिन्होंने इस हद तक उतर कर घृणित अपराध नहीं किया, उनमें भी औरत के प्रति सम्मानजनक नज़रिया विकसित नहीं हुआ है और वे सभी मिल कर भी स्त्रीद्रोही वातावरण तैयार करते हैं जिसमें बड़े अपराधों को अंजाम देने की हिम्मत अपराधी जुटा लेते हैं। अभी  भी समाज मैं दुष्कर्म की घटनाए  कुले आम हो रही है ! हमारे समाज में छींटाकशीं, भद्दे मज़ाक, अश्लील व्यवहार आदि की गिनती नहीं की जा सकती है। यहां तक कि हमारी दैनंदिन संस्कृति में या त्यौहारों-उत्सवों में प्रगट या प्रच्छन्न रूप में नारीविरोध, नारी अपमान इतने गहरे में रचा बसा होता है कि वह सामान्यबोध का हिस्सा बन जाता है। हमारे देश में कानून तो बनाये जा रहे है लेकिन स्त्रियों की सुरक्षा को लेकर गंभीर नहीं है ! उस  कुत्सित मानसिकता का क्या करे जो नारी की अस्मिता के साथ खिलवाड़ करने पर तुली हुई है   उत्तर भारत में शादी के मौके पर गाए जानेवाले चन्द गीतों को देखें तो वह तरह तरह के अश्लील सम्बन्धों की बात करता है, जिसे हंसी मज़ाक का हिस्सा समझा जाता है। या होली के आयोजन को देखें, भारत के बहुसंख्यक समुदाय में होली के अवसर पर जो गीत गाए जाते हैं या इस दिन 'आधिकारिक तौर पर' रंग लगाने के नाम पर जिस तरह स्त्रियों-लड़कियों को छूने या छेड़ने का जो लाइसेन्स मिल जाता है, उसके बारे में क्या कहेंगे?विडम्बना यही है कि दूसरे को इस भददे ढंग से प्रताडित करने को लेकर माता पिता की भी मौन सहमति होती है। वह अपनी सन्तान को यह नहीं सीखाते कि दूसरे के साथ ऐसा व्यवहार अनुचित है। जिन्दगी और मौत के बीच 13 दिन जूझती रही उस निर्दोष लड़की ने- हमें  भी बहुत कुछ एहसास कराया है। एक दूसरे से अनजान अपरिचित लोग इस अन्याय के खिलाफ एकजुट हुए हैं। बड़े बड़े प्रदर्शनों के साथ ही जिसमें हर उम्र के लोग शामिल हुए, महिलाओं के साथ साथ पुरूषों की भी बड़ी संख्या सड़कों पर उतरी वही गली मुहल्लों में भी यह आवाज़ पहुंची, वहां पर भी जुलूस निकले।
निश्चित ही बढ़ता असुरक्षित वातावरण अब सभी के सरोकार का मुद्दा बन गया है। लगातार विरोध प्रदर्शनों में भागते भागते थक कर चूर हो चुके युवाओं का हौंसला देख कर यही लगा कि अब बहुत कुछ अच्छा भी होनेवाला है, वे अपने हकों के प्रति जागरूक हैं और अमन तथा इन्साफ की दुनिया बनाने में उनकी अच्छी भूमिका बनेगी। यह पूरा जनप्रतिरोध अपने परिवेश को लेकर एक तार्किक और जवाबदेह नज़रिया विकसित करने में मदद करेगा।
  हर उभार समाज पर अपना असर भी छोड़ता है। 70 के दशक के उत्तरार्ध्द में जब मथुरा बलात्कार काण्ड के खिलाफ महिलाओं का व्यापक आन्दोलन खड़ा हुआ, यौन अत्याचार के लिए स्त्रियों के 'चरित्र' को ही लांछन लगाने के सिलसिले पर प्रश्न उठे, तो उसने महिलाओं के लिए जगह भी बनायी।
अब कोई राजनेता या अधिकारी स्त्री के विरोध में बयानबाजी करने के पहले दस बार सोचता है और अगर अपने पुरूषप्रधान चिन्तन के अन्तर्गत बयान देता भी है तो अच्छी भली भद्द पिटती है उसकी। अभी हमारे सामने ही राष्ट्रपति के बेटे ने अपने नारीविरोधी बयान को लेकर तीखी आलोचना का शिकार हुए तथा उन्हें माफी मांगनी पड़ी और लड़कियों को स्कर्ट पहनने से मना करनेवाले भाजपा विधायक को लड़कियों के घेराव का सामना करना पड़ा।
 जब कोई किसी अन्याय के खिलाफ उठ खड़ा होता है तो बाद में उसे अन्य दूसरे अन्याय भी दिखने लगते हैं और इस रूप में समाज को आगे ले जानेवाली ताकतें आपस में नयी मजबूती ग्रहण करती जाती हैं। समाज की अग्रगति उन निराशावादियों से तय नहीं होती जिन्हें हर प्रयास में खोट नज़र आती है
अब बदलाव की एक उम्मीद तो  जागी  है नारी सुरक्षा को लेकर  !
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